दस दिन हो या हो फिर सौ वर्ष
वक्त ऐसे ही गुजर जाता है,
‘कल से करूँगा मैं’ यह सोच
मनुष्य आज अपना गँवाता है।
मरना सीख लिया तो जीना
सीख अपने आप तुम जाओगे,
चीजें बुरी और भी हो सकती है
जो है उसे, कहाँ फिर तुम पाओगे।
कुछ पाने की चाह में तुम
जो है उसे भी क्यों नकारते हो ?
खुशियां बगल में बैठी है तुम्हारे
तुम ही ना जाने उसे कहाँ पुकारते हो ?
कितना हासिल किया मायने नहीं रखता
जितना कि क्या देकर तुम जाओगे,
अपना सफर पूरा करने के बाद
लोगों को आखिर कैसे याद आओगे?
चीजों की जगह क्यों ना
इंसानों से प्यार तुम कर लो,
जो सही में मायने रखता है
उनसे अपना दामन तुम भर लो।
मृत्यु के भय से तुम
जीना अपना क्या छोड़ दोगे?
सांसों के कोमल धागे को
अपने हाथों क्या तोड़ दोगे?
नहीं तुम्हारे जीवन को
तुम से बेहतर कौन जियेगा ?
तुम्हारे कर्मों के लिबास को
तुम से बेहतर कौन सियेगा ?
मरते तो है सब यहाँ
मगर जीकर बहुत कम है जाते,
जीवन के मधुमेह पेय को
पूर्ण पीकर बहुत कम है जाते।
मृत्यु जब आएगी तब देख लेंगे
अभी तो तुम जिंदा हो,
जीवन के इस खुले आसमान में
ऊँचा उड़ता एक परिंदा हो ।
इस मृत्यु को करके नमन
जीवन को गले से लगाओ,
और समय अपना आने पर
मुस्कुराते हुए तुम चले जाओ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
०५-०२-२०२२