जब सूर्य सा है तेज मुझमें
क्यूँ डरूँ मैं अंधकार से,
अमरत्व का जब स्रोत मुझीं में ,
क्यूँ डरूँ मृत्यु के वार से ?
व्याप्त मुझमें है सकल
जगत का सामर्थ्य जब,
क्यूँ विवशता से बंधी
आंखें मेरी हो रही नम ?
जब राम सा पुरुषार्थ है
और कृष्ण सा ज्ञान है,
तब क्यूँ समस्याओं को
मेरे सामने अभिमान है ?
जब नाद हूँ आनंद का
तो क्यूँ भला उदास हूँ,
जब प्रेम का निर्झर हूँ मैं
तो क्यूँ द्वेष के पास हूँ ?
सारी समस्याओं का जड़ में
और मैं ही उसका निदान हूँ,
मर्म हूँ हर कर्म का मैं
और विधि का मैं विधान हूँ ।
अज्ञान से हूँ मैं ढका
पर ज्ञान का प्रकाश हूँ ,
संदेह स्वयं पर क्यूँ करूँ
जब स्वयं मैं विश्वास हूँ ।
ब्रह्मा का मैं हूँ सृजन
और शिव का मैं संहार हूँ,
सृष्टि का हूँ आधार मैं
और प्रलय का मैं विस्तार हूँ ।
आरंभ हूँ, मैं ही हूँ अंत
सौम्य हूँ और मैं हूँ प्रचंड,
शून्य हूँ और मैं ही अनंत
हूँ क्षमा और मैं ही हूँ दंड।
सार हूँ मैं वेद का
पांचजन्य की हुंकार हूँ,
गांडीव की टंकार हूँ मैं
और शेष की फुंकार हूँ ।
राख से ढका हूँ मैं पर
सुलगता हुआ अंगार हूँ ,
तुलना करूँ मैं क्या किसी से
सौंदर्य का मैं श्रृंगार हूँ ।
अनजान बनकर मैं स्वयं से
मैं स्वयं ही हैरान हूँ ,
जी रहा हूँ तुछ्ता मैं
जबकि सबसे मैं महान हूँ ।
युगों से चलता हूँ अभी भी
सर्वत्र रहता नहीं हूँ कहीं भी ,
मैं हूँ गलत, मैं हूँ सही भी
मैं हूँ और मैं हूँ नहीं भी ।
निशांत चौबे ‘ अज्ञानी’
२३.१०.२०२२