कभी सोचा भी नहीं था मैंने
कि ऐसे दिन भी आयेंगे,
हम खुद अपने सपनों की
परछाईयों से भी डर जाएंगे।
लाखों की इस भीड़ में
खुद को अकेला हम पाएंगे,
अपने सारे जख्मों पर
खुद ही हम मरहम लगाएंगे।
अपने सारे दर्द हम
अपनों से ही छुपायेंगे,
दिल टूट के रोये पर
होंठ हमारे मुस्कुराएंगे।
दिल में कुछ और होगा
कुछ और हम सुनायेंगे,
पूछने पर कैसे हो ?
बस “अच्छा हूँ ” बताएंगे।
सपने इन आंखो के
आंखो में ही सो जाएंगे,
खुद को तलाशने में हम
दुनिया में ही खो जाएंगे।
कभी सोचा भी नहीं था मैंने
कि ऐसे दिन भी आयेंगे,
हम खुद अपने सपनों की
परछाईयों से भी डर जाएंगे।
बीती बातों पर यूँ हम
कब तक आंसू बहाएंगे ?
बहरों को सुनाने के लिए,
क्यों चीख-चीख चिल्लाएँगे?
क्यों कल की शोक में
अपना आज हम गंवाएंगे,
क्यों कल से ना सबक ले
अपना कल हम सजाएंगे?
सपनों की राख से हम
सपना फिर नया सुलगाएँगे,
गूंगे हुए इस गले से
एक नया गीत गाएंगे।
दुनिया चाहे जो सोचें पर
नजरें खुद से हम मिलाएंगे,
मरने से पहले एक बार
फिर जीकर हम दिखायेंगे।
कभी सोचा भी नहीं था मैंने
कि ऐसे दिन भी आयेंगे,
मर चुके मेरे सारे सपने
फिर से नया जीवन पाएँगे ।
निशांत चौबे “अज्ञानी”
२५.१०.२०२५