क्या सुनाऊँ मैं?

क्या बताऊँ, क्या सुनाऊँ मैं?
तुम्हें याद करूँ या भूल जाऊँ मैं?

उन हसीन यादों की धागों से
चीथड़े इस दिल की सी लूँ ,
या तुम्हारे दिए जहर को
फिर मुस्कुराकर पी जाऊँ मैं?

उस गम के बोझ से दबकर मर जाऊँ
या कल की आस में फिर जी जाऊँ मैं ?
क्या बताऊँ, क्या सुनाऊँ मैं?
तुम्हें याद करूँ या भूल जाऊँ मैं?

कई ज़िंदगियाँ रौशन हैं
मेरे साँसों की चिराग से,
एक सिर्फ तुम्हारे लिए
इन्हें क्यों बुझाऊँ मैं?

पल पल कर बीत गए
मेरे वो गुजरे सारे कल,
उस गुजरे कल के लिए
अपना कल क्यों जलाऊँ मैं ?

तुम्हें याद करते करते
खुद को क्यों भुलाऊँ मैं ?
क्या बताऊँ, क्या सुनाऊँ मैं?
तुम्हें याद करूँ या भूल जाऊँ मैं?

सपनों की इस बुझे राख से
एक नया सपना खिलाऊँ मैं,
यादों के इस खंडहर को
दिल का मकान बनाऊँ मैं।

क्यों याद करूँ, क्यों तुम्हें भूलूँ?
क्यों तुम्हारी बातें दुहराऊँ मैं ?
बहुत बना लिया इस दुनिया को
अब खुद से खुद को बनाऊँ मैं।

क्या बताऊँ, क्या सुनाऊँ मैं?
अब हार में भी मुस्कुराऊँ मैं ।

निशांत चौबे ‘अज्ञानी ‘
०८. १२. २०२४.

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