निकल पड़ा हूँ मैं अब तेरे शहर के लिए,
उम्मीद दिल में बची है उसी नजर के लिए।
खुद के हाथों खत्म कर दिया खुद को,
हाथ बढ़े मेरे अमृत छोड़ जहर के लिए।
कभी आसमानों में उड़ता था सीना फैलाएं अपना,
आज एक जमीन नहीं है अपनी कदर के लिए।
चुपचाप, उदास, तन्हा बैठा हूँ इस किनारे पर,
इंतज़ार है बस खुशी की एक लहर के लिए।
पता नहीं ये फासले कब इतने बढ़ गए बीच हमारे,
तरस जाता हूँ अब मैं तुम्हारे एक खबर के लिए।
थके कदम, उखड़ी सांसें और बेचैन मन है,
तेरे पनाह की आरज़ू है कुछ पहर के लिए।
माना कि दिल तेरा अब पत्थर हो चुका है,
सब्र फिर भी मुझमें है दुआओं के असर के लिए।
थामूंगा हाथ तुम्हारा, मैं अब उम्रभर के लिए,
साथ दे दे तू मेरा अब इस सफर के लिए।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
०३-०६-२०२२