सड़क के किनारे वो पुश्तैनी हवेली
जिसे देखकर मेरी आंखें आई भर,
यहीं बिताई गर्मी की सारी छुट्टियाँ
हाँ, दोस्तों, यही मेरी नानी का घर।
देखो, यही शिवालय है
जहाँ आरतिया लगती थी,
बाबा को भोग लगाने हर रात
यहाँ थालियाँ सजती थी ।
गौशाला इससे कुछ ही दूरी पर
दूध मक्खन से भरे हुए,
बछड़ों से लिपटी है गायें
पूरी दुनिया से परे हुए।
आगे घर का मुख्य भाग
नाना जहाँ बैठा करते थे,
उनकी गोद में खेलने को
हम आपस में ही लड़ते थे।
बरामदा फिर इसके आगे
जहाँ नानी लाड़ लगाती थी,
और हर रात सोने से पहले
परियों की कहानियाँ सुनती थी।
अन्ताक्षरी का दौर फिर
छत पर सारी रात चलता,
हर कोई अपने मन की बात
बेझिझक एक दूसरे से कहता।
ना अब वो दिन, वो शाम
और ना वैसी अब वो रातें है,
ना अब वो किस्से, वो कहानी
और ना वैसी अब वो बातें है ।
जहाँ हँसी और ठहाके
हर समय गूंजा करते थे,
वही आज उनके जाने के बाद
खामोशियों को साए पलते है।
आंगन की तुलसी से पूछो
कैसा रहा मेरा बचपना सालों भर ,
यहीं बिताए सबसे हसीं लम्हें
यही तो है मेरी नानी का घर ।
निशांत चौबे ‘ अज्ञानी’
१५-०९-२०२०