बारिश की बूंदो को अपनी मुठ्ठी में समेटना चाहा मगर
उँगलियों के बीच से होकर वो निकल गई ,
हवाओं को अपने दामन में कैद करना चाहा मगर
दामन के गलियारों से होकर वो गुजर गई ।
रेत पर अपने निशां हमेशा के लिए छोड़ना चाहा मगर
समंदर की लहरों ने उसे मिटा दिया ,
हीरा बनकर कंकड़ों से बाहर निकलना चाहा मगर
नदियों के पानी ने मुझको खुदमें मिला लिया ।
अनेको ख्वाहिशों ख्वाबो को सच करना चाहा मगर
आँख खुलते ही सारे याद में बदल गए ,
मुझे ऐसा लगा बरसो समय बचा है हासिल करने को मगर
पलक झपकते ही मेरे सारे कल गुजर गए ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
१५.०६.२०१६