क्यूँ देखते हो लक्ष्य को जब पास जा सकते नहीं
क्यूँ देखते हो बाण को जब तुम चला सकते नहीं ,
क्यूँ देखते इन हाथ को जब तुम उठा सकते नहीं
क्यूँ देखते पैरों को अपने जब कदम बढ़ा सकते नहीं ।
बांध कर खुदको ही तुम इन बेड़ियों ज़ंज़ीर में
छोड़ रखा है ये जीवन हाथों में तकदीर के ,
तकदीर क्या किसी की बनाई है किसी ने भी कभी
उठ कर फैसला करो अपने तकदीर का तुम अभी ।
क्यूँ दूसरों को दोष देते तुम स्वयं की हार में
जीवन का बेड़ा उठाओ तुम स्वयं के हाथ में ,
है वीर वहीं जो अंत तक चुनौतियों से हो लड़ा
विजेता वही जो हारने पर भी प्रस्तुत हो खड़ा ।
चाहते हो तुम बदलना इस विश्व को इस देश को
पर बदलना चाहते नहीं स्वयं के भेष को ,
असमर्थ बन संरक्षण का मांग भला करते हो क्यूँ ?
समर्थ होने का संकल्प स्वयं नहीं धरते हो क्यूँ ?
जब सारी समस्याओं का हल तुम्हारे ही पास है
फिर भी स्वयं से ज्यादा तुम्हे दूसरों पर आस है ,
दूसरों को छोड़ कर तुम स्वयं पर अधिकार करो
स्वयं समर्थ और सक्षम बन संसार पर उपकार करो ।
शाश्वत सत्य है ये आखिर सबकुछ छोड़कर है जाना
आँखे थोड़ी नम हो उनकी जब भी याद करे तुम्हें ज़माना ,
अपना जीवन कुछ ऐसे शानदार तरीके से जीना
कि मौत से समक्ष आखे ऊँची हो और चौड़ा हो सीना ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
०१.०९.२०१५