ये गंगा क्यूँ चुप है ?

ये गंगा क्यूँ चुप है ?

सदियों से है बहती जाती
सबकी प्यास ये बुझाती,
फिर क्यूँ ये है प्यासी
आखिर कैसी उदासी ,
इसको कैसा दुःख है
ये गंगा क्यूँ चुप है ?

अमृत सी थी इसकी ममता
इसकी थी ना कोई समता ,
अब ज़हर क्यूँ घुला है
चेहरा अश्रु से धुला है ,
ठेस लगी है दिल में
अब वो है मुश्किल में ,
सूखा क्यूँ मुख है
ये गंगा क्यूँ चुप है ?

उसके मार्ग में रोड़े डाले
बांध बांधे, बिजली निकाले,
अपनी तरक्की तू तो करता
मगर उसमे ज़हर ही भरता ,
सारे कचड़े इसमें फेंके
पीछे मुड़कर भी ना देखे ,
कैसी है वो बेचारी
पुत्रों द्वारा ही मारी ,
पुत्रों से कैसा सुख है
ये गंगा क्यूँ चुप है ?

पतित पावनि पतित हुई है
रोगो से अब ग्रसित हुई है ,
ढूंढ रही है कोई सहारा
मिल जाए दुखो से किनारा ,
बच्चो से वो प्यार खोजे
मान खोजे , दुलार खोजे ,
अब तक इसने ख्याल रखा है
अब इसका ख्याल रखना है ,
वरना मर जाएगी बेचारी
फिर देखेगा ना सूरत प्यारी ,
तब इसकी कमी खलेगी
फिर आँखों में नमी पलेगी.
अब भी वक़्त है प्यार दो इसको
मान दो, सम्मान दो इसको ,
प्यार से इसे गले लगाओ
रोगो से अब मुक्त कराओ ,
माता का तुम ऋण चुकाओ
उसके होठों में हसीं ले आओ ,
तुमसे है वो आस लगाए
दिल की बातें दिल में छुपाए,
मन में इसका ही दुःख है
इसलिए माता चुप है ।

निशांत चौबे ‘ अज्ञानी’
०६.०२.२०१४

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