तुम्हारे चेहरे की उदासी से
एक नयी रार ठन जाए ,
सोचता हूँ ऐसा क्या लिखूँ कि
वो तुम्हारी मुस्कान बन जाए ।
प्रकृति की तरह मुक्त स्वछंद
तुम्हारी वो चेहरे की हँसी,
उदास अँधेरे में गुम हो
ना जाने कहाँ है वो फँसी ।
वो देखो उसकी एक अधूरी
झलक नज़र सी आई है ,
उदास बंजर जमीन पर जैसे
हरी कोंपले मुस्काई है ।
तुम्हारे नेत्रों के जल जब
अधखुले अधरों पर पड़ते है ,
उषाकाल में दूब पर पड़े
मोतियों समान लगते है ।
मेरे उस खजाने से वंचित
अब मुझे और ना करो ,
अपने कोमल अधरों पर माँ
पुनः मीठी मुस्कान भरो ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
०६.०६.२०१६