उस दूर क्षितिज पर जहाँ समुद्र आसमान मिलते है
मिलते है या सिर्फ मिलते हुए से लगते है ,
सोने की इक राह समुद्र के सीने से जाती है
ठीक उसी राह पर मिलन के स्वप्न पलते है ।
इस मिलन से सूरज के चेहरे पर लालिमा झलकती है
उसकी तीव्र किरणें मद्धम रोशनी में बदलती है ,
दिन भर यहाँ वहाँ जो थी भटकती
अब वो किरण मिलन को मचलती है ।
यह रेखा जो अलग करती है दो जहां को
इधर समुद्र को उधर आसमां को ,
सूर्य उन रेखाओं को मिटाने ही वाला है
उन दो जहां को खुद में समाने ही वाला है ।
समुद्र के आँचल ने सूर्य को अपने में छिपा लिया
दिन भर के थकान को इक क्षण में मिटा दिया ,
सूर्य तो नहीं उसकी लालिमा अभी भी दिखती है
जिसमें उस मिलन की हमें अनुभूति मिलती है ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
०१.०५.२०१६