मित्रता

‘मित्रता’ शब्द से एक याद
मन में उभर कर आती है ,
कृष्ण और सुदामा की छवि
इन नज़रो में समाती है ।

कहाँ वासुदेव और कहाँ
एक गरीब ब्राह्मण ,
उन दोनों ने बताया हमें
आखिर क्या होता समर्पण ।

सुदामा ने अपना जीवन
कृष्ण को समर्पित किया ,
इनकी भक्ति और श्रद्धा में
खुद को आहुतित किया ।

वहीं कृष्ण ने मात्र श्रद्धा को
अपने मन में अंगीकार किया ,
दो मुठ्ठी चावल के बदले
अपना सर्वस्व न्यौछार दिया ।

अगर किसी मतलब की हो
तो फिर वो कैसी मित्रता है ,
श्रद्धा, समर्पण और प्रेम ही
बस मात्र इसकी सम्पूर्णता है ।

मित्रता कोई व्यापार नहीं
जिसमे लाभ-हानि देखा जाए ,
किससे किसको कितना फायदा
बस मात्र इसे ही सोचा जाए ।

एक दूसरे की कमियाँ हटा
दोनों को पूर्ण बनाती है ,
परस्पर प्रेम और एकता बढ़ा
अपना धर्म वो निभाती है ।

एक की खुशियों को दूजा
अपने में जीता है ,
उसके गम का ज़हर वो
खुद के हाथों पीता है ।

एक सच्चे मित्र का मिलना
अत्यंत सौभाग्य की बात है ,
वरना कईयों को तो अब तक
एक सच्चे मित्र की आस है ।

निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
२६.०९.२०१६

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