माँ

माँ शब्द की गरिमा
शब्दों में कहाँ से आएगी ,
उन भावो की संवेदना को
मेरी कलम कहाँ से पाएगी ।

ना कोई कागज़ ऐसा बना
ना बनी है कोई लेखनी ,
समर्थ हो जो अपने भीतर
प्रसव की पीड़ा समेटनी ।

नव सृजन , नव जीवन की
दात्रि होती है माताएँ,
धैर्य की प्रतिमा है वो
जो बीज को वृक्ष बनाएँ।

एक समर्थ माली की तरह
बड़े परिश्रम और प्यार से ,
संवारा है मुझ पौधे को
तुमने ममता और संस्कार से ।

बड़े यत्न से
बड़े प्रयत्न से ,
नैनों में अश्रुधार लिए
पर सीने में अंगार लिए ,
सारी दुनिया से लड़ा है तुमने
अपने हाथों मुझे गढ़ा है तुमने ।

तेरे जीवन का सृंगार हूँ मैं
दुनिया पर किया उपकार हूँ मैं ,
माया की छाया हूँ मैं
तुम्हारी दूजी काया हूँ मैं ।

पास रहूं या दूर रहूं
मजबूत रहूं या मजबूर रहूं ,
कुछ बोलूं या खामोश रहूं
होश में या बेहोश रहूं ।

मन में छवि रहेगी तेरी
दिल में यादें बसेगी तेरी ,
तेरी जगह सबसे अलग है दिल में
तेरे जाने के बाद
हमेशा कमी खलेगी तेरी ।

पर,
आज तू मेरे पास है
और ये दिन भी कुछ ख़ास है ,
जन्मदिन का दिन है ये
उपहारों के बिन है ये ,
उपहार नहीं , आभार
तुम्हे मैं देता हूँ ,
खुश रखूँगा तुम्हे हमेशा
संकल्प मन में लेता हूँ ।

अंत में ,
कुछ रहे या ना रहे
तेरी दुआये और साथ रहे ,
मेरी ख़ामोशी भी तुझसे
मेरे दिल की बात कहे ।

निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
२१.०३.२०१३

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