माँ

क्या इसलिए ? सींचा था लहू से
तेरे कोमल तन को ,
कि भेद डाले शब्दवाणो से
अपने माँ के निश्छल मन को |

बचपन में जिन उंगलियों को पकड़कर
तुझे चलना सिखलाती ,
वही उंगलिया अपने अतृप्त माँ के
हाथ थामने से भी कतराती |

नहीं सिखलाती पहला अक्षर
ज्ञान कहाँ तू पाता ,
इस उच्च पदवी का
अभिमान कहाँ तू पाता |

तेरी खुशियों के लिए किया
जिसने अनुपम त्याग ,
उसी का स्वार्थवश
किया तूने परित्याग |

जिस माँ ने तुझे माना
खुदा की नेक नियामत ,
उसी को तू मान बैठा
एक अनचाही आफत |

मत भूल कि एक दिन
वृद्ध तू भी हो जायेगा ,
इतिहास फिर दोबारा
खुद को दोहराएगा |

सम्मान करो उस देवी का
जिसने तुझे जन्म दिया ,
जीते जी तेरी खातिर जिसने
अकल्पनीय दर्द लिया |

चढ़ा दो शीश अपना
उस देवी के चरणों पर ,
लुटाया अपना सर्वस्व जिसने
केवल तेरी खुशियों पर |

माँ के दूध का अमूल्य क़र्ज़
अब है तुझे चुकाना ,
उसे इसी धरती पर
है तुझे स्वर्ग दिखाना |


निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
२४.०५. २०१०
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