अपने मायके को छोड़कर
ससुराल में आती है ,
पलभर में बेटियाँ
बहुएँ बन जाती है ।
मायके की मनमानियाँ
वो बेफिक्री और शरारते ,
बन जाती है ज़िम्मेदारियाँ
सबको खुश करने की आदते ।
ना किसी अपने का साथ
ना कोई साथी ना सहेली ,
घूँघट की चारदीवारी में
बेचारी रहती वो अकेली ।
कोई चूक कही न हो जाये
मात्र इस बात पर ध्यान रहता ,
उसके हर काम के पीछे
उसके घरवालों का मान रहता ।
अपने मन को मारकर
औरो का मन रखती है ,
अपनी खुशियाँ त्यागकर
औरो को खुश करती है ।
सास-ससुर , पतिदेव का
ख्याल रखना पड़ता है ,
देवर-ननद , भाभियों का
नाज़ सहना पड़ता है ।
बदल जाती है प्राथमिकताएं
और अपनों की परिभाषा ,
नववधू से होती है
सबको सुखो की अभिलाषा ।
परायों को बड़े प्यार से
अपना वो बनाती है ,
बड़ी ख़ुशी से सारी जिम्मेदारियाँ
अपने कंधो पर उठाती है ।
धीरे-धीरे ही सही पर
सबके दिलो में चढ़ती है ,
अपने अच्छे व्यवहार से वो
घर की खुशियाँ गढ़ती है ।
ससुराल का अभिन्न हिस्सा
फिर बहुएँ बन जाती है ,
किसी भी काम के लिए
बस याद उसकी आती है ।
अपना सर्वस्व समर्पित कर
सबका प्यार पाती है ,
फिर घर की बहुएँ
बेटियाँ बन जाती है ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
११.१०.२०१३