शहर के धुल-धुँए से दूर
चल वहाँ जाते है ,
जहाँ की वादियाँ चिढ़ते मन को
सुकून पहुँचाते है ।
सड़को पर ना भीड़ हो और
ना ही हो शोर- शराबा ,
आए दिन ना देखने मिले
और नया कोई हंगामा ।
रौशनी की चकाचौंध से जहाँ
आँखे ना थकने लग जाए ,
जीवन की इस भाग दौड़ में
फुर्सत के लम्हें हम पाए ।
प्रत्यूषा की किरणें जब
ओस की मोतियाँ बनती है ,
तब धरा अपने सर पर
सौंदर्य का मुकुट धरती है ।
नदियों के कल-कल की ध्वनि
पायल का संगीत बनेंगी ,
नन्ही-नन्ही कोंपले अपनी
स्वछंद छटा बिखेर हँसेगी ।
पर्वतों पर काली घटाएँ
उसकी सौंदर्यता और बढ़ाएँगे,
वर्षा की वो अमृत बूंदे
प्यास धरा की फिर बुझाएँगे ।
सौंदर्यता सीधे सबके मन को
अपने वश में कर लेती है ,
अपने आस-पास की सुध भुला
ध्यान सभी का हर लेती है ।
फिर प्रकृति की बात ही क्या
जननी है वो सुंदरता की ,
तेजस्विता की बानी है वो
लक्ष्य है वो प्रखरता की ।
सच्ची सुंदरता का अनुभव तो
प्रकृति की गोद में ही आता है ,
मूढ़ मनुष्य अपनी मूढ़ता में
स्वयं उस सुख को गँवाता है ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
२४.११.२०१६