प्रकृति

इस धरा ने जब प्रथम
मनुष्य को धारण किया ,
सर्वोत्तम रचना का सुख
स्वयं के हाथों पिया ।

नवजात शिशु की आँखे देख
आँखे उसकी भर आई ,
उसके ह्रदय में भरी ममता ने
पाई अपनी नई ऊँचाई ।

सर्वस्व न्यौछावर करके अपना
शिशु का पूर्ण विकास किया ,
अपना सारा सपना उसने
उसके सपनों में जिया ।

मगर नादान समझ ना सकी
अत्यधिक प्रेम भी नहीं सही ,
फलस्वरूप जिसका डर था वहीं
अंत में आखिर हुआ यँही ।

ममता और सहानुभूति को
माना उसने उसकी मजबूरी ,
भूल गया वो नादान कि
सहनशीलता नहीं होती कमजोरी ।

जीवन का आधार तीन है
जल, हवा और भोजन ,
मगर मनुष्य करने लगा
इन्ही तीनों का शोषण ।

जिस डाल पर बैठा वो
उसी को काट रहा है ,
फिर भी अपनी सकुशलता का
स्वप्न मन में पाल रहा है ।

नदियों को बाँध कर
बिजली बनाई जाती है ,
पेड़ो को काटकर
इमारते उठाई जाती है ।

तालाबों को भर कर
लोग बसाए जाते है ,
अपने हाथों ही खुद के
कब्र बनाए जाते है ।

अपने स्वार्थ में मनुष्य
करने लगा उसका शोषण ,
संहार को आतुर है माँ
जिसने किया था कभी पोषण ।

इंसान पूजता है अदृश्य भगवान
और दृश्य प्रकृति को उजाड़ता ,
मगर बेवकूफ ना जनता कि
खुद भगवान को वो लताड़ता ।

विकास और विनाश के बीच
अंतर केवल विवेक बुद्धि है ,
सारी समस्याओं का निदान
केवल अपनी आत्मशुद्धि है ।

अतएव , सम्मान दो उस माँ को
जो इसकी हकदार है ,
क्यूँकि तुम्हारा सारा जीवन
मात्र उसका कर्ज़दार है ।

निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
०८.१२.२०१५

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