गर एक सपना टूट गया तो क्या
कल फिर एक नए सपने को देखूंगा ,
इस काली अँधेरी रात के बाद
सुबह बांहे फैलाये , अपने को देखूंगा ।
अपनी सूखी इन अधरों पर
एक नई मुस्कान देखूंगा ,
अपने बल-बूते पर खुद की
एक नई पहचान देखूंगा ।
लोगो के चेहरे के
भावो को बदलते देखूंगा,
मंज़िल तक ले जाये उन
राहों को मचलते देखूंगा ।
अपने अंदर हिम्मत को
फिर उफनते हुए देखूंगा,
अपने हाथों अपनी किस्मत को
फिर संवरते हुए देखूंगा ।
जो आज हँसते है मुझपर
हँसता हुआ मैं, उनको देखूंगा,
कितनी भी मुश्किलें आये पर
बढ़ता हुआ मैं , खुदको देखूंगा ।
जो मुँह फेरते है मुझसे
तरसता हुआ उनको देखूंगा,
राह की दुश्वारियों पर
गरजता हुआ खुदको देखूंगा ।
अपनी इस हार के बाद
बहुत बड़ी जीत देखूंगा,
गिर कर उठने की
वही पुरानी रीत देखूंगा |
अपनी इस ज़िन्दगी को
खुद जी कर देखूंगा,
जिंदगी में है नशा कितना
खुद पी कर देखूंगा ।
मैं देखूंगा और मुझे
देखता हुआ लोग देखेंगे ,
निशांत नाम के सूरज को
चढ़ता हुआ लोग देखेंगे ।
निशांत चौबे ‘ अज्ञानी ‘
२७.१२.२०११