जब जल रहा हो देश मेरा
प्रेम भरे गीत कैसे लिखुँ ,
अपनी मातृभूमि को नकारकर
तुम्हे अपना मीत कैसे लिखुँ ।
यह समर की वेला है
कोई रंगमंच का गान नहीं ,
इतना भी नासमझ नहीं मैं
कि मुझे देश का भान नहीं ।
बच्चे बचपन से दूर है
और जवान नशे में चूर है ,
अपने देश के वृद्ध तो
खुद उम्र से मजबूर है ।
स्त्रियों के वसन को
जब चाहते है नोच डालते ,
अपनी माँ के इज़्ज़त लूटने
में भी ना संकोच पालते ।
लक्ष्मी और दुर्गा पर
एसिड जल है चढ़ाया जाता ,
उनकी संवेदनाओ को दबा
निज अहंकार है बढ़ाया जाता ।
नामर्दो के लिए मैं
शौर्य के गीत कैसे लिखुँ ,
अपनी मातृभूमि को नकारकर
तुम्हे अपना मीत कैसे लिखुँ ।
लड़खड़ाती है जबान मेरी
नेताओ को इंसान बताते हुए ,
शर्म ना आती है इनको
चिताओ पर रोटियाँ पकाते हुए ।
लोकतंत्र के चारो पाये
बस टूटने ही वाले है ,
जनता के भीतर ज्वालामुखी
बस फूटने ही वाले है ।
शहीदों कि शहादत चंद
सिक्को में है आँकी जाती ,
उनके खून से सींची धरती
बस मुफ्त में है बाटी जाती ।
क्रिकेटरों के छक्कों पर
करोड़ो है लुटाये जाते ,
फिल्मो के अश्लील धुनों पर
ठुमके है लगाए जाते ।
शहीदों के परिवारों की
वो कराहती चीख कैसे लिखुँ ,
अपनी मातृभूमि को नकारकर
तुम्हे अपना मीत कैसे लिखुँ ।
पता है मुझे ये
चंद घंटो का रोष है ,
पानी के बुलबुले जैसा
क्षणभंगुर अपना जोश है ।
रोजमर्रा के कामो में
देश तो याद आती नहीं ,
सरहद पर मरे कोई
हमारी तो जान जाती नहीं ।
देश का कुछ नहीं होगा
इसकी चिंता कौन करे ,
खुद के लिए ही वक़्त नहीं
दूसरो पर अब कौन मरे ।
पर ,
अपने घर का कूड़ा
कोई और साफ़ करेगा क्या ,
हमारी किये ख़ताओं को
कोई और माफ़ करेगा क्या ।
अपने आप को स्वयं ही
ऊपर उठाना पड़ता है ,
अपने हाथों ही खुद का
लाज बचाना पड़ता है ।
अपने बच्चो के अलावे कौन
अपनी माँ को संभालेगा ,
हम नहीं तो फिर कौन
हमारे देश को सँवारेगा ।
जब महाभारत का शंखनाद हो
तब शांति की रीत कैसे लिखुँ ,
अपनी मातृभूमि को नकारकर
तुम्हे अपना मीत कैसे लिखुँ ।
निशांत चौबे ‘ अज्ञानी’
१५.०८.२०१३