जी ले ज़रा

आओ उन लम्हों को जी ले ज़रा
जिन लम्हों में सुकून था बसा ,
कल की चिंता ना थी जहाँ
आज में ही था सब कुछ रमा ।

बचपन के मासूम यादों से
आँखे मेरी भर जाती है ,
सच में ये बचपन ही तो
ईश्वर का रूप कहाती है |
आओ उन यादों को फिर से संजोये
सावन की बारिश में खुद को भिंगोये ।

फिर ना आयेंगे वो पल
बीत गए मेरे सारे कल ,
फिर ना आएगा बचपन
फिर ना झूमेगा सावन |
यादें ही बस रह जाती है
बीत जाती है सारी उम्र ,
आओ उन धड़कन को फिर से सुने
आओ उन ख्वाबो को फिर से बुने ।

निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
१०.०७.२०१६

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