जीवनदायिनी

वृक्ष की शाख पर सूखे पत्ते थे मुरझाए ,
गौरवमयी दिनों को याद कर आँखे उनके भर आए ।

करने लगे पुकार वो आह भरी थी जिसमें,
यौवन की अरुणाई की छाप ढली थी जिसमें ।

पता नहीं बिना दस्तक दिए कब ये बुढ़ापा आया ,
यौवन के सपनों ने बस अभी था मन भरमाया ।

सुनकर उनकी करुण व्यथा को वृक्ष उन्हें समझाए ,
सुख-दुःख की यही रीत नज़र हर जगह आए ।

वृक्ष से बिछड़ कर पत्ते भूमि पर गिर आए ,
वीर वहीं जो विपत्ति में भी ना धैर्य गवाँए ।

वृक्ष के इस धैर्य को फिर बादलों ने सराहा ,
उस भूमि पर आन पड़ी जीवनदायिनी धारा ।

ग्रीष्म ऋतु की प्रचंडता से सबका त्राण किया,
काले मेघो ने बरसकर सबको प्राण दिया ।

वर्षा ऋतु ने फिर धरा पर प्राणो का संचार भरा ,
बुझते हुए दीपकों में फिर जलने का आस भरा ।

सुख-दुःख का चक्र यूँही निरंतर है चलता रहता ,
धन्य उसी का जीवन जो निर्बाध है बहता रहता ।

उस मनोरम दृश्य को देख वृक्ष के आँख भर आए ,
जब उसके बूढ़े शाख पर नन्हे कोंपल मुस्काए ।

निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
१४.०९.२०१५

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