जियो तो ऐसे जियो कि
बस आज ही जीना हो ,
जीवन अमृत ऐसे पियो कि
बस आखिरी घूँट पीना हो ।
जीवन की ये जलती लौ
क्या पता कब बुझ जाए,
साँसो की ये सुरमयी सरगम
क्या पता कब रुक जाए ।
खुद के हाथों ही पराजित
तू हर बार होता है ,
आलस्य के प्रमाद में ये
कीमती वक़्त खोता है ।
सपनों के सुनहले महल जब
यथार्थ से टकराते है ,
रेत के टीलों की भाँति
चूर चूर हो जाते है ।
मन के विकारो के आवेग में
संयम एक पल भी ना टिक पाता,
उमंगो के लहरों से धुलकर
संकल्प एक पल में ही मिट जाता ।
तूफानों के थमने पर ही
तबाही का मंजर नजर है आता ,
बरसो लगे जिसे बनाने में
पल भर में इंसान उसे गँवाता ।
फिर भी तू हर बार
एक ही गलती करता है ,
खुल के जीने के बजाए
घुट-घुट कर मरता है ।
प्रत्येक क्षण अपने भीतर
अद्भुत क्षमता बसाए है ,
फिर भी लापरवाही से तू
इस खजाने को लुटाए है ।
तेरी खुशियों की चाभी
क्यूँ औरो के पास है ?
खुद से ज्यादा तुझे
क्यूँ औरो से आस है ?
क्यूँ पल भर में ही
हताश तू हो जाता है ,
हकीकत झुठला सपनों की
तलाश में खो जाता है ।
अंगद की भाँति तुझे
जिद पर अड़ना होगा ,
कोई और सहारा ना देगा
तुझे खुद अब लड़ना होगा ।
प्रतिरोध नहीं रूपांतरण ही
अब एकमात्र सहारा है ,
जियो ऐसे जैसे तुम्हें
अब मौत ने पुकारा है ।
निशांत चौबे ‘ अज्ञानी’
०१.०४.२०१४