तुम कविता बनो , मैं कवि बन सकूँ
तुम ज्योति बनो , मैं रवि बन सकूँ ।
तुम गंगा बनो , मैं हिमालय बनूँ ,
तुम शिवलिंग बनो , मैं शिवालय बनूँ ॥
दर्द तुम जो बनो , मैं दवा बन सकूँ
खुशबु तुम जो बनो , मैं हवा बन सकूँ ।
तुम वीणा बनो , मैं बनूँ उसका तार
तुम कुमकुम बनो , मैं बनूँ शृंगार ॥
तुम माला बनो , तो पिरो मैं सकूँ
ख्वाब तुम जो बनो , तो सँजो मैं सकूँ ।
तुम राधा बनो, तो बनूँ घनश्याम
तुम सीता बनो , तो बनूँ श्रीराम ॥
प्रेम की तो अभी , ये शरुआत है
बात कुछ खास है , खास कुछ बात है ।
मैं ज़रा कुछ कहूँ , तुम ज़रा कुछ कहो
मैं ज़रा चुप रहूँ , तुम ज़रा चुप रहो ॥
तेरे होठों पे अब तो , हँसी घर करे
तेरे दामन में अब तो , ख़ुशी सर धरे ।
तेरे माथे की बिंदिया , सलामत रहे
मेरा ये प्रेम तेरी , अमानत रहे ॥
मेरे शब्दों से तुम जो , प्रभावित हुए
मेरे भावो में तुम जो , समाहित हुए ।
तुम्हारे इसी प्रेम की, आस में
सदा मैं जियूँगा, विश्वास में ॥
निशांत चौबे ‘ अज्ञानी ‘
३०.०३.२०१३