कब से खड़ी हूँ द्वारे आकर के पास बुला लो ,
सीने से अपने लगाकर मन की प्यास बुझा दो ।
क्या तेरे काबिल नहीं मैं क्या तू इसको सोचे
या सोचे कि दूर कब था क्यूँ ये मुझको खोजे,
अज्ञान कि ये परते हाथों से अपने हटा दो
या मन के भीतर मेरे ज्ञान का दीप जला दो ।
खुद ही मैं खुदको ही तुझसे दूर करती हूँ
फिर दूर जाकर ही मिलन की आहें भरती हूँ ,
हम दोनों की दूरी आकर जरा मिटा दो
अपने कदम बढ़ाती मैं, अपने तुम बढ़ा लो ।
ईच्छा यही कि ये दूरी आखिर कर मिट जाएँ
मैं तुझमे तू मुझमे दोनों ही मिल जाएँ ,
अब मिलन कि वेला है वंशी कि धुन बजा दो
राधा के संग कृष्णा आखिरी रास रचा लो ।
निशांत चौबे ‘अज्ञानी’
२०.१२.२०१५